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समस्तीपुर में आजतक नहीं जीती BJP, इमरजेंसी के बाद समाजवादियों की बनी प्रयोगशाला।

बिहार के समस्तीपुर जिले का इतिहास काफी पुराना है. कहते हैं इसका पुराना नाम सरैसा हुआ करता था. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, उत्तरी बिहार के शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास के नाम पर ही इसका नाम समस्तीपुर पड़ा. वहीं कुछ लोगों का मानना है कि इसका पुराना सोमवती था जो बदलकर सोम वस्तीपुर और फिर बदलकर समस्तीपुर कर दिया गया था. बिहार राज्य जिला पुनर्गठन आयोग के रिपोर्ट के आधार पर इसे दरभंगा प्रमंडल के अंतर्गत 14 नवम्बर 172 को जिला बनाया गया था.

समाजवाद के जनक कर्पूरी ठाकुर यहीं पर पैदा हुए थे. उनकी जन्मस्थली और कर्मभूमि होने के नाते यहां समाजवादियों को फलने-फूलने का खूब मौका मिला. इमरजेंसी के पहले यहां कांग्रेस का दबदबा हुआ करता था. 1952 से लेकर 1972 तक कांग्रेस प्रत्याशी ही जीतकर दिल्ली पहुंचते थे. ‘प्रिंस ऑफ पार्लियामेंट’ के उपनाम से मशहूर शख्सियत सत्यनारायण सिन्हा ने भी समस्तीपुर का प्रतिनिधित्व किया था. वे जवाहर लाल नेहरू मंत्रिमंडल में संसदीय कार्यमंत्री थे.

1997 के बाद से यहां पर कांग्रेस को सिर्फ एक बार 1984 में जीत हासिल हुई. इंदिरा गांधी के निधन के बाद पूरे देश में कांग्रेस के लिए सहानुभूति की ऐसी लहर चली थी कि जननायक कर्पूरी ठाकुर को भी हार का सामना करना पड़ा था. उन्हें कांग्रेस के रामदेव राय ने हराया था. हालांकि इसके बाद से कांग्रेस की कभी वापसी नहीं हो सकी. 1989, 1991 और 1996 में यहां से जनता दल के प्रत्याशी लगातार तीन बार चुने गए. 1998, 2004 में राजद और 1999,2009 में जदयू ने जीत दर्ज की.

यह सीट कांग्रेस के लिए जितनी अछूती है, उससे कहीं ज्यादा बीजेपी के लिए है. आजादी के बाद से आजतक यहां 17 आम चुनाव हुए, जिनमें से एक बार भी बीजेपी का कमल नहीं खिला. 2014 और 2019 में यह सीट बीजेपी की सहयोगी पार्टी एलजेपी के खाते में गई थी. दिवंगत केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने यहां से अपने छोटे भाई रामचंद्र पासवान को उतारा और वे दोनों बार संसद पहुंचे. 2019 में रामचंद्र के निधन के बाद उपचुनाव कराना पड़ा था, जिसमें उनके बेटे प्रिंस राज चुने गए

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